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अस्थिरता के दो प्रकार हैं

अस्थिरता के दो प्रकार हैं

समकालीन दक्षिण एशिया

(क) राजतंत्र, लोकतंत्र-समर्थक समूहों और अतिवादियों के बीच संघर्ष के कारण राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण बना।
(ख) चारों तरफ भूमि से घिरा देश।
(ग) दक्षिण एशिया का वह देश जिसने सबसे पहले अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया।
(घ) सेना और लोकतंत्र-समर्थक समूहों के बीच संघर्ष में सेना ने लोकतंत्र केऊपर बाजी मारी।
(ड) दक्षिण एशिया केकेंद्र में अवस्थित। इस देश की सीमाएँदक्षिण एशिया केअधिकांश देशों से मिलती हैं।
(च) पहले इस द्वीप में शासन की बागडोर सुल्यान केहाथ में थी। अब यह एक गणतंत्र है।
(छ) ग्रामीण क्षेत्र में छोटी बचत और सहकारी ऋण की व्यवस्था के कारण इस देश को ग़रीबी कम करने में मदद मिली है।
(ज) एक हिमालयी देश जहाँ संवैधानिक राजतंत्र है। यह देश भी हर तरफ से भूमि से घिरा है।

(क) नेपाल
(ख) नेपाल
(ग) श्रीलंका
(घ) पाकिस्तान
(ड) भारत
(च) मालद्वीप
(छ) बांग्लादेश
(ज) भूटान

पाकिस्तान के लोकतंत्रीकरण में कौन-कौन सी कठिनाइयाँ हैं?

  1. पाकिस्तान में सेना, धर्मगुरु और भू-स्वामी अभिजनों का सामाजिक दबदबा है। इसकी वजह से कई बार निर्वाचित सरकारों को गिराकर सैनिक शासन कायम हुआ है।
  2. पाकिस्तान की भारत के साथ तनातनी रहती है। इस वजह से सेना-समर्थक समूह ज्यादा मजबूत हैं और अक्सर ये समूह दलील देते हैं कि पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और लोकतंत्र में खोट है।
  3. राजनीतिक दलों के स्वार्थ साधन तथा लोकतंत्र की धमाचौकड़ी से पाकिस्तान की सुरक्षा खतरे में पड़ेगी। इस तरह ये ताकतें सैनिक शासन को जायज ठहराती हैं।
  4. पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शासन चले- इसके लिए कोई खास अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलता। इस वजह से भी सेना को अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए बढ़ावा मिला है।
  5. अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने अपने-अपने स्वार्थों से गुजरे वक्त में पाकिस्तान में सैनिक शासन को बढ़ावा दिया। इन देशों को उस आतंकवाद से डर लगता है जिसे ये देश ' विश्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद' कहते हैं।

नेपाल के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बहाल करने में कैसे सफल हुए?

  1. नेपाल अतीत में एक हिन्दू-राज्य था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज उठाते रहे। लेकिन राजा ने सेना की सहायता से शासन पर पूरा नियंत्रण कर लिया और नेपाल में लोकतंत्र की राह अवरुद्ध हो गई।
  2. एक मजबूत लोकतंत्र-समर्थक आदोलन की चपेट में आकर राजा ने 1990 में नए लोकतांत्रिक संविधान की माँग मान ली। परन्तु देश में अनेक पार्टियों की मौजूदगी के कारण मिश्रित सरकारों के निर्माण होना था जो अधिक समय तक नहीं चल पाती थी। इसके चलते 2002 में राजा ने संसद को भंग कर दिया और सरकार को गिरा दिया।
  3. इसके विरुद्ध सन् 2006 में देश-व्यापी प्रदर्शन हुए जिसमें जनता माओवादी तथा सभी राजनैतिक दाल शामिल हुए। संघर्षरत लोकतंत्र-समर्थक शक्तियों ने अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की जब 26 अप्रैल 2006 को राजा ने संसद को बहाल किया और सात दलों को मिली-जुली सरकार बनाने का न्योता भेजा।
  4. इस गठबंधन के प्रभाव के कारण राजा ने नेपाली कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष गिरिजा प्रसाद कोइराला को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। इसके साथ ही नेपाल में संविधान का निर्माण करने के लिए संविधान सभा का भी गठन किया गया।
  5. इस संविधान सभा ने को नेपाल को एक धर्म-निरपेक्ष, संघीय, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की घोषणा की। राजा के सभी अधिकार ले लिए गए और यहाँ तक कि देश में राजतंत्र को भी समाप्त कर दिया गया है। नेपाल में 2015 में नया लोकतांत्रिक संविधान लागू हो गया।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना तो हो गई है, परंतु वहां पर विभिन्न राजनीतिक दलों के आपसी मतभेद के चलते यह कहना थोड़ा मुश्किल हैं कि वहां पर लोकतंत्र कितना सफल हो पाएगा।

श्रीलंका के जातीय-संघर्ष में किनकी भूमिका प्रमुख है?

  1. सिंहली समुदाय: श्रीलंका की राजनीति पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय का दबदबा रहा हैं तथा तमिल सरकार एवं नेताओं पर उनके हितों की उपेक्षा करने का दोषारोपण करते रहे हैं।
  2. तमिल अल्पसंख्यक: तमिल अल्पसंख्यक हैं। ये लोग भारत छोड़कर श्रीलंका आ बसे एक बड़ी तमिल आबादी के खिलाफ़ हैं। तमिलों का बसना श्रीलंका के आजाद होने के बाद भी जारी रहा। सिंहली राष्ट्रवादियों का मानना था कि श्रीलंका में तमिलों के साथ कोई रियायत' नहीं बरती जानी चाहिए, क्योंकि श्रीलंका सिर्फ सिंहली लोगों का है।
  3. तमिल छापामार: तमिलों के प्रति उपेक्षा भरे बर्ताव से एक उग्र तमिल राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न हुई। 1983 के बाद से उग्र तमिल संगठन 'लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिटे)' श्रीलंका की सेना के साथ सशस्त्र संघर्ष कर रहा हैं। इसने 'तमिल ईलम' यानी श्रीलंका के तमिलों के लिए एक अलग देश की माँग की है। श्रीलंका के उत्तर पूर्वी हिस्से पर लिट्टे का नियंत्रण है।

दक्षिण एशिया के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?

दक्षिण एशिया में सिर्फ एक तरह की राजनीतिक प्रणाली चलती है।

बांग्लादेश और भारत ने नदी-जल की हिस्सेदारी के बारे में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।

'साफ्टा' पर हस्ताक्षर इस्लामाबाद के 12 वें सार्क-सम्मेलन में हुए।

दक्षिण एशिया की राजनीति में चीन और संयुक्त राज्य अमरीका महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ग़रीब देशों में युद्ध और अस्थिरता हैं टीकाकरण कार्यक्रम के लिए चुनौतियां: यूनिसेफ

यूनिसेफ के अस्थिरता के दो प्रकार हैं वैश्विक टीकाकरण अभियान के उप-प्रमुख ने कहा कि एशिया, अफ्रीका, मध्य पूर्व और लैटिन अमेरिका के कई ग़रीब और विकासशील देशों में परेशानियों का एक प्रमुख कारण हिंसा है, जहां कोविड-19 के ख़िलाफ़ टीकाकरण कार्यक्रम को चलाया जाना है. The post ग़रीब देशों में युद्ध और अस्थिरता हैं टीकाकरण कार्यक्रम के लिए चुनौतियां: यूनिसेफ appeared first on The Wire - Hindi.

यूनिसेफ के वैश्विक टीकाकरण अभियान के उप-प्रमुख ने कहा कि एशिया, अफ्रीका, मध्य पूर्व और लैटिन अमेरिका के कई ग़रीब और विकासशील देशों में परेशानियों का एक प्रमुख कारण हिंसा है, जहां कोविड-19 के ख़िलाफ़ टीकाकरण कार्यक्रम को चलाया जाना है.

A nurse prepares a vaccine as part of the start of the seasonal flu vaccination campaign as a preventive measure due to the outbreak of coronavirus disease (COVID-19), in Santiago, Chile, March 16, 2020. Picture taken March 16, 2020. REUTERS/Ivan Alvarado

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

डार मंगी (पाकिस्तान): यूनिसेफ के वैश्विक टीकाकरण अभियान के उप-प्रमुख बेंजामिन श्रेइबर ने कहा है कि युद्ध और अस्थिरता के कारण गरीब देशों में टीकाकरण को लेकर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

उन्होंने कहा, ‘सबसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्र संघर्ष और हिंसा है, जहां टीकाकरण के कार्यक्रम में बाधा पहुंचती है और ऐसे क्षेत्र जहां गलत सूचना प्रसारित की जा रही है, वहां समुदाय की भागीदारी हतोत्साहित होती है.’

एशिया, अफ्रीका, मध्य पूर्व और लैटिन अमेरिका के कई गरीब और विकासशील देशों में परेशानियों का एक प्रमुख कारण हिंसा है और इन देशों में कोविड-19 के खिलाफ आबादी के बीच टीकाकरण कार्यक्रम को चलाया जाना है.

श्रेइबर ने कहा कि यूनिसेफ, जो दुनियाभर में टीकाकरण कार्यक्रम चलाता है, कोविड-19 टीकों की खरीद और वितरण में मदद करने के लिए कमर कस रहा है.

उन्होंने कहा कि आधा अरब सीरिंज का भंडार कर लिया गया है और 70,000 रेफ्रिजरेटर उपलब्ध कराने का लक्ष्य है, जिनमें ज्यादातर सौर ऊर्जा से संचालित हैं.

यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक हेनरीटा फोर ने एक बयान में कहा कि एजेंसी का लक्ष्य अगले साल एक महीने में 850 टन कोविड-19 टीके का परिवहन करना है.

हेनरीटा फोर ने कहा, ‘यह एक विशाल और ऐतिहासिक जिम्मेदारी है. इस कार्य की विशालता परेशान करने वाली है, और दांव पर भी बहुत कुछ लगा है, शायद अतीत से कहीं ज्यादा, मगर हम इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए पूरी तरह मुस्तैद हैं.’

द हिंदू के मुताबिक रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान में टीका पहुंचाना जानलेवा भी हो सकता है. क्योंकि वहां 2012 से पोलियो टीकाकरण में शामिल 100 से अधिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, टीकाकार और सुरक्षा अधिकारी मारे गए हैं.

आतंकवादी और कट्टरपंथी धार्मिक समूहों का मानना है कि पोलियो टीका मुस्लिम बच्चों को बांझ बनाने या उन्हें उनके धर्म से दूर करने के लिए एक पश्चिमी समझौता है.

पोलियो टीकाकरण अभियानों के समन्वयक डॉ. राणा सफदर ने बताया कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नाइजीरिया दुनिया के ऐसे देश हैं जहां अभी भी पोलियो है. इस साल अकेले पाकिस्तान में पोलियो के 82 नए मामले सामने आए हैं, क्योंकि महामारी के कारण टीकाकरण बंद हो गया था.

सफदर ने बताया कि रूढ़िवादी आदिवासी बुजुर्गों का मानना है कि टीकाकरण से बांझपन आता है. जो कि इस्लामी परंपराओं और मूल्यों के खिलाफ और अपमानजनक हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक इसके अलावा हिंसा ग्रस्त एशिया, अफ्रीका, मध्य पूर्व और लैटिन अमेरिका के कई गरीब और विकासशील देशों में भी कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि वे कोविड-19 के खिलाफ अपनी आबादी का टीकाकरण को स्वीकार नहीं करेंगे.

फ्रेंचाइजी और फ्रेंचाइज़र के बीच संबंध बनाने वाले कारक

Nibedita Mohanta

एक सफल उद्यम बनाने के लिए, फ्रेंचाइजी और फ्रेंचाइज़र को जिम्मेदारियों को समान रूप से उठाना चाहिए,क्योंकि यह एक पारस्परिक संबंध है। व्यापार का पूरा खेल दो पक्षों पर निर्भर करता है, 'खरीदने' और 'बेचने'। एक कहीं से खरीदता है और दूसरों को बेचता है और यह इसी तरह आगे बढ़ता रहता हैं । उत्पाद और धन की अस्थिरता व्यवसाय की गति को स्थिर रखते हैं।

हम सब एक दूसरे से एक अदृश्य धागे से बंधे हैं जिसे रिश्ता कहा जाता है। व्यापार में भी संबंध होते हैं; यह रिश्ता न केवल खरीदारों और विक्रेताओं के बीच बल्कि फ्रेंचाइज़र और फ्रेंचाइजी के बीच भी है। इस पृथ्वी पर सभी मौजूदा रिश्तों के बीच सामान्य तथ्य समान हैं। और एक सफल उद्यम बनाने के लिए, फ्रेंचाइजी और फ्रेंचाइज़र को जिम्मेदारियों को समान रूप से उठाना चाहिए,क्योंकि यह एक पारस्परिक संबंध है।

भारत संस्कृतियों से विभाजित है और भोजन से एकजुट है, इस प्रकार रेस्तरां व्यवसाय में, फ्रैंचाइज़ी और फ्रेंचाइज़र के बीच संबंध मौजूदा कारकों पर एक अतिरिक्त प्रोत्साहन की मांग करता है ताकि व्यवसाय के पहियों को चालू रखा जा सके। यहां अन्य कारक बताए गए हैं, जो फ्रेंचाइजी और फ्रेंचाइज़र को अपने संबंध बनाते समय ध्यान में रखने की आवश्यकता है:

साझेदारी:

फ्रेंचाइज़र ने फ्रेंचाइजी के लिए फ्रेंचाइज़िंग के अवसरों को खोलने का साहस किया, केवल तब जब एक ब्रांड बना लिया गया हैं | एक ब्रांड बनाने में फ्रेंचाइज़र के हिस्से से बहुत अधिक समय, धैर्य और ऊर्जा लगती है। इस प्रकार फ्रैंचाइज़र की ओर से एक अजनबी पर भरोसा करना एक मुश्किल कार्य है,और अनुमति देना की वह उसके ब्रांड को कही और ले जाये, जहॉं वह व्यक्तिगत रूप से सीधे देखभाल करने में सक्षम नहीं होगा।

साझेदारी महत्वपूर्ण है क्योंकि फ्रेंचाइज़र फ्रेंचाइजी को अपने कंधों पर अपने ब्रांड को ले जाने देना चाहता है लेकिन फ्रेंचाइजी को ब्रांड के नाम, प्रसिद्धि और गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए पर्याप्त रूप से जिम्मेदार होना चाहिए। साझेदारी में आने से पहले किसी ब्रांड की देखभाल करने में सक्षम होने के लिए, दोनों को आर्थिक और मानसिक रूप से, 100% सुनिश्चित होना चाहिए।

भरोसा:

भरोसा एक ऐसी चीज जिसे हासिल करना चाहिए नाकि उसे एक, थाली में परोसा जाना चाहिए। फ्रैंचाइज़र को भी फ्रैंचाइज़ी पर भरोसा करना होता है और दिशानिर्देशों के साथ-साथ बुनियादी समस्याओं पर काबू पाने में उसकी मदद करनी होती है, जिसका उसे भी पहले सामना करना पड़ता था। इससे फ्रैंचाइजी का मनोबल बढ़ाने में मदद मिलेगी, साथ ही फ्रैंचाइजी के लिए भरोसा भी बढ़ेगा।

फ्रेंचाइजी को चलाने के लिए एक अच्छी तरह से स्थापित ब्रांड मिल रहा है, फ्रेंचाइज़र द्वारा ब्रांड का निर्माण पहले से ही कर दिया गया हैं। इस प्रकार विश्वास कारक का निर्माण करने के लिए, उसे केवल उत्पाद या सेवा की गुणवत्ता, नाम और लाभ को बनाए रखना होगा ।

आपसी समझ:

दोनों पक्षों में आपसी समझ होनी चाहिए क्योंकि “एक हाथ से ताली नहीं बजाई जा सकती हैं”। फ्रैंचाइज़र अपने उत्पाद या सेवा या ब्रांड के प्रति थोड़ा अतिरिक्त चिंतित होता है, यही वजह है कि ब्रांड के विकास या लागत में कटौती के फैसले में थोड़ा सा हस्तक्षेप उसके द्वारा लिया जा सकता है, चीजों को समझाए बिना। फ्रेंचाइजी को फ्रेंचाइज़र के इस निर्णेय पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

इसके अलावा, ऐसे उदाहरण हैं जब फ्रेंचाइजी अपने स्टोर / दुकान में ब्रांड में छोटे बदलाव करने की स्वतंत्रता लेती है, जैसे कि रेस्तरां में एक स्थानीय स्वाद पेश करना, या उत्सव के दौरान मानार्थ के रूप में किसी विशेष व्यंजन की सेवा करने से कोई नुकसान नहीं होगा ब्रांड को । दूसरी ओर, यह अन्य फ्रेंचाइजी को उनकी स्वतंत्रता के साथ ब्रांड के नाम को फैलाने के लिए प्रोत्साहित अस्थिरता के दो प्रकार हैं करेगा। किसी भी तरह से यह ब्रांड बनाने में मदद करेगा।

ज्यादा विदेशी निवेश बाजार में लाएगा ज्यादा अस्थिरता

देश में ज्यादा विदेशी निवेश आकर्षित करने में जल्दबाजी देखी जा रही है. इसकी वजह यह है कि यह विदेशी मुद्रा का अच्छा स्रोत है.

ज्यादा विदेशी निवेश बाजार में लाएगा ज्यादा अस्थिरता

ज्यादातर पश्चिमी मुल्क इंफ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी और कंज्यूमर आधारित सेक्टर पर जोर दे रहे हैं. इसका सीधा अर्थ यह है कि उभरते हुए बाजारों में निजी निवेश कम होने की आशंकाएं हैं. इसके अलावा डेट (बॉन्ड जैसे निवेश इंस्ट्रूमेंट) में भी एफपीआई निवेश पर कुछ अंकुश लगा हुआ है.

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल ही में एफपीआई को कम अवधि वाली सरकारी सिक्योरिटीज और कॉर्पोरेट बॉन्ड में निवेश करने की अनुमति प्रदान की है. एफपीआई की सीमा को 1 लाख करोड़ रुपये से बढ़ा दिया गया है.

इसके तीन लाभ होंगे. जो इस प्रकार हैं:

  1. इससे डॉलर आए बढ़ेगी और रुपये में स्थिरता आएगी तथा भुगतान संतुलन में सुधार होगा.
  2. डेट में अधिक निवेश से कॉर्पोरेट डेट बाजार में तेजी आएगी. इससे कंपनियों की कर्ज की जरूरत कम होगी. साथ ही बैंक के एनपीए की समस्या भी हल हो सकती है. इसके अलावा कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार भी मजबूत होगा
  3. अधिक फंड होने से सरकारी सिक्योरिटीज की यील्ड कम होगी. मौजूदा सयम में यील्ड काफी अधिक है, जिसका अर्थ यह है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती नहीं करेगा. इस स्थिति में 10 साल के बॉन्ड की यील्ड 7.7 फीसदी से 7.9 फीसदी तक पहुंच गई है.

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हालांकि, यह अच्छी बातें हैं, जो छोटी से मध्यमावधि में नजर आ सकती हैं. हालांकि, एफपीआई की सीमा बढ़ाने के गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं. बीते कुछ महीनों में डेट बाजार में एफपीआई निवेश काफी अस्थिर रहा है. एकाएक निकासी में बाजार में काफी हलचल आ जाती है.

यह काम दो से तीन चरणों में भी किया जा सकता है. पिछले 42 में से 18 महीनों में एफपीआई निवेश नकारात्मक रहा है. सकारात्मक रेंज में भी यह निवेश $1 मिलियन से $4.7 मिलियन के बीच ही रहा है. ऐसी स्थिति में डेट बाजार अधिक अस्थिर हो जाता है.

यदि निवेश बढ़ने से ब्याज दरें कम हो सकती हैं, तो निवेश घटने से ब्याज दरों में एकाएक इजाफा भी हो सकता है. इस तरह की निकासी वैश्विक बाजारों के संकेतों के आधार पर भी हो सकती है. ऐसे में बाजार में कुछ अस्थिरता तो हमेशा ही बरकरार रहेगी. इससे बैंको पर दबाव बढ़ेगा.

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आरबीआई को बॉन्ड और फॉरेक्स बाजार, दोनों पर ही ध्यान देना होगा. दोनों बाजार अलग-अलग दिशाओं में बढ़ते नजर आएंगे. इस बात को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि विदेशी निवेश बढ़ने से बाजारों में अस्थिरता बढ़ती है. रुपये की कमजोरी को देखते हुए इसका असर और भी ज्यादा पड़ेगा.

(लेखक केयर रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री हैं और ये उनके निजी विचार हैं. ईटी मार्केट्स हिंदी का इन विचारों से सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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ओआईसी, राजनैतिक अस्थिरता और विदेश नीति

इमरान खान

पाकिस्तान में राजनैतिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। जहाँ एक ओर विपक्ष सरकार के विरुद्ध लामबंद है, वहीं तहरीक ए इन्साफ के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबंधन की आन्तरिक दरारें अब बाहर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी हैं, और यह प्रतीत होने लगा है कि इमरान खान, सत्ता शीर्ष के अब कुछ ही समय के मेहमान है।

संतोष के. वर्मा

पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता, समय से पूर्व सरकारों का गिरना और सैन्य तख्तापलट आम घटनाएँ रही हैं और एक आजाद देश के रूप में स्थापित होने की प्रक्रिया में पाकिस्तान का लगातार इनसे सामना होता रहा है।

लेकिन पाकिस्तान की इस आन्तरिक गड़बड़ी के व्यापक प्रभाव रहे हैं, और ऐसे घटनाक्रमों ने इसके राजनैतिक नेतृत्व को देश की सीमाओं से बाहर निकल कर अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप के मुखापेक्षी होने की प्रेरणा दी है, और इस प्रकार पाकिस्तान की विदेश नीति को इसने गहराई तक प्रभावित किया है।

पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान द्वारा एक जनसभा में दिए गए भाषण में पाकिस्तान की कमजोर विदेश नीति और इसकी भारत की विदेश नीति के साथ तुलनात्मक अंतर पर जोर डाला। उन्होंने भारत की तटस्थ विदेश नीति की प्रशंसा करते हुए पाकिस्तान की विदेश नीति पर सवाल उठाए हैं, और कहा कि भारत, अमेरिका के साथ भी गठबंधन करने और रूस पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बावजूद उससे तेल खरीद रहा है जो यह दिखाता है, कि भारतीय विदेश नीति अपने लोगों की बेहतरी के लिए है जबकि पाकिस्तान में ऐसा नहीं है।

उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान कभी एक स्वतंत्र, राष्ट्र और जन उन्मुख विदेश नीति का पालन नहीं कर पाया। आजादी के शुरूआती दशक में जहाँ यह विंस्टन चर्चिल और एंथनी ईडन के नेतृत्व वाले ब्रिटेन का अनुगामी बना हुआ था और अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्यवाद विरोधी धड़े की और झुकाव रखता था जो अगले दशकों में बढ़ता ही गया। आज इसकी विदेश नीति अपनी दिशा खो चुकी है।

राजनीतिक उठापटक और विदेश नीति की उपादेयता पर जारी बहस के बीच पाकिस्तान, इस्लामी सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों (ओआईसी-सीएफएम) के 48 वें शिखर सम्मेलन की मेजबानी की। 22 और 23 मार्च को आयोजित इस सम्मलेन की थीम "एकता, न्याय और विकास के लिए साझेदारी निर्माण" रखी गई। 1969 में स्थापित इस संगठन का, पाकिस्तान प्रारंभ से ही सदस्य रहा है और कई मामलों में इसे विशेषाधिकार प्राप्त सदस्य का दर्जा मिला हुआ है। पाकिस्तान, 57 सदस्यीय इस संगठन का एकमात्र सदस्य है जो परमाणु शक्ति संपन्न है और साथ ही साथ इस संगठन की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति भी है।

जैसा कि पूर्व में इंगित किया जा चुका है कि किस प्रकार पाकिस्तान अमेरिका और ब्रिटेन के साथ साम्यवाद विरोधी गुट का विश्वस्त अनुगामी था, वही 1969 में इस्लामी सहयोग संगठन का सदस्य बनने के बाद से इसकी नीतियों में उन्हीं इस्लामी आकांक्षाओं का प्रदर्शन होने लगा, जो भारत से एक अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने के लिए इसके पितृ पुरुषों में दिखाई देती थी। 70 के दशक के अंत में जिया उल हक़ के सत्ता में आने के बाद अमेरिका के प्रति प्रतिबद्धता के साथ साथ वैश्विक इस्लामी उद्देश्यों के प्रति पाकिस्तान की प्रतिबद्धता ‘मुजाहिदीन युद्ध’ में प्रदर्शित हुई । सोवियत संघ न केवल पूँजीवाद के शत्रु के रूप में बल्कि इस्लाम के भयंकर विरोधी के रूप में चित्रित किया गया और सऊदी समेत कड़ी के देशों के साथ साथ अमेरिका से उसे भारी मात्रा में संसाधन प्राप्त हुए। लेकिन 90 के दशक के मध्य तक अमेरिका को पाकिस्तान एक असहनीय मित्र प्रतीत होने लगा, लेकिन 9/11 के आतंकी हमले के बाद तालिबान पर ऑपरेशन एन्ड्योरिंग फ्रीडम के तहत किये गये हमले ने इस कुछ और समय दे दिया । लेकिन इन दरकते सम्बन्धों के बीच पाकिस्तान चीन के खेमे में शामिल हो गया ।

वर्तमान में पाकिस्तान आर्थिक संकट से निपटने के लिए सऊदी अरब के आगे गुहार लगाता है, तो साथ ही साथ इस्लामी विश्व में उसके धुर विरोधी माने जाने वाले तुर्की के साथ घनिष्ठ सामरिक सहयोग स्थापित करता है। एक ओर वह अमेरिका से आर्थिक और तकनीकी सहयोग चाहता है परन्तु चीन की विश्व पर प्रभाव स्थापित करने वाली नीतियों का अग्रिम ध्वजवाहक भी है। परन्तु इस परस्पर द्वैध के बाद भी अगर वह पाकिस्तान के हितों को ही संरक्षित कर पाता तो भी इस नीति की उपयोगिता होती, परन्तु ऐसा करने में भी यह असफल ही सिद्ध हुई है। आज पाकिस्तान का जनजीवन अस्तव्यस्त है। आर्थिक संकट को कोरोना ने और भी गंभीर बना दिया है और पाकिस्तान अस्थिरता के दो प्रकार हैं में बेरोजगारी और गरीबी अपने चरम पर पहुँच चुकी है। ऐसी स्थिति में भी पाकिस्तान के पास किसी भी समर्थन तंत्र का अभाव है। दूसरी ओर उसके विश्वस्त और आजमाए हुए मित्र उससे विमुख हो चुके हैं और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर वह अलग थलग कर दिया गया है और भले ही वह इसके लिए भारत की कूटनीति को दोषी ठहराए परन्तु यथार्थ से वह भी अवगत है कि सिद्धांतविहीन और पूर्णत: अवसरवाद पर आधारित विदेशनीति का अंतत: यही हश्र होना था ।

आज पाकिस्तान को इस्लामी सहयोग संगठन से समर्थन की बड़ी आशा है। परंतु कश्निर माले पर प्रस्ताव पारित करा लेने और भारत के आंतरिक मामलों पर टीका टिप्पणी करने के अलावा यह संगठन कुछ और नहीं कर सकता। इसके कई प्रभावी सदस्य देशों के पाकिस्तान की तुलना में भारत के साथ गहन आर्थिक और सामरिक संबंध हैं, और वो पाकिस्तान की सदिच्छा प्राप्त करने के लिए इन्हें दांव पर लगाने को तैयार नहीं हैं।

जैसा कि पाकिस्तान से समाचार मिल रहे हैं, इमरान खान सेना का समर्थन खो चुके हैं और उनकी हताशा न केवल विपक्षी राजनैतिक दलों बल्कि अपने सबसे बड़े सहयोगी, सैन्य प्रतिष्ठान के खिलाफ भी व्यक्त हो रही है। जब इमरान खान एक प्रधानमंत्री के रूप में पाकिस्तान की विदेश नीति की आलोचना करते हैं, तो इसका सीधा निशाना सेना की तरफ ही होता है। ऐसी छद्म लोकतान्त्रिक सरकारों के दौर में भी, आंतरिक और विदेश नीतियों का निर्धारण बिना सेना की सहमति के संभव ही नहीं है, और सेना भी इसका उपयोग अपने आर्थिक लाभ से लेकर राजनैतिक वर्चस्व में वृद्ध के लिए करती आई है और इस सबके बीच बहुसंख्य पाकिस्तानी नागरिकों के हित गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं। पाकिस्तान में 25 मार्च के बाद राजनैतिक भविष्य क्या होता है, इससे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या इससे पाकिस्तान की आंतरिक और विदेश नीतियों के लक्ष्यों में बदलाव आयेगा? क्योंकि यही वह प्रश्न है जो आज के पाकिस्तान में मायने रखता है।

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